FB 2340 -
माँ का संदेश ; और एक परिकल्पना ,
अम्मा, तुम हम सबको बहुत डाँटती थी -
“नल धीरे खोलो... पानी बदला लेता है!
अन्न नाली में न जाए, नाली का कीड़ा बनोगे!
सुबह-सुबह तुलसी पर जल चढाओ,
बरगद पूजो,
पीपल पूजो,
आँवला पूजो,
मुंडेर पर चिड़िया के लिए पानी रखा कि नहीं?
हरी सब्जी के छिलके गाय के लिए अलग बाल्टी में डालो।
अरे कांच टूट गया है। उसे अलग रखना। कूड़े की बाल्टी में न डालना, कोई जानवर मुँह न मार दे।
.. ये हरे छिलके कूड़े में किसने डाले, कही भी जगह नहीं मिलेगी........
माफ़ करना माँ, तुम और तुम्हारी पीढ़ी इतनी पढ़ी नहीं थी पर तुमने धरती को स्वर्ग बनाए रखा,
और हम चार किताबे पढ़ कर स्वर्ग-नरक की तुम्हारी कल्पना पर मुस्कुराते हुए धरती को नर्क बनाने में जुटे रहे।
प्यार और आभार
~ EF VB की ओर से
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